एक उल्टी यात्रा

आज के तकनीकी, तेज़ रफ्तार, स्क्रीन से भरे जीवन में अगर ज़रा ठहरकर पलटकर देखें, तो एक पूरी दुनिया पीछे छूट चुकी है। हम में से जो 50 या 60 का आंकड़ा पार कर चुके हैं या उसके आसपास हैं, वो जानते हैं कि हमने एक नहीं, कई ज़िंदगियाँ जिया है।

हम वो लोग हैं जो बैलगाड़ी से शुरू होकर सुपर सोनिक जेट तक पहुंचे हैं। बैरंग खतों से लेकर लाइव वीडियो कॉल तक का सफर देखा है। रेडियो के बिनाका गीतमाला से लेकर आज की वर्चुअल मीटिंग्स तक की दुनिया हमारी आंखों के सामने बदली है।

वो मिट्टी, वो बचपन…

हमने मिट्टी के घरों में बैठकर परियों की कहानियां सुनी हैं। चूल्हे की रोटियों की खुशबू महसूस की है और छत पर चादरें बिछा कर तारे गिनते हुए रात बिताई है। हमने प्लेट में चाय पी है, दातून से दांत साफ किए हैं, और नमक या कोयले से दंत मंजन भी किया है।

हमारी पिढ़ी ने जब स्कूल जाना शुरू किया था, तब पेन में स्याही भरनी पड़ती थी, तख़्ती पर सेठे की क़लम से अक्षर उकेरे जाते थे। और हां, मार भी खाई है — शिक्षक से भी, और घर पर भी, शिकायत करने पर।

वो रिश्ते, जो अब दुर्लभ हैं

हमने वो ज़माना देखा है जब खत महीनों का इंतज़ार कराते थे, लेकिन उनका जवाब आत्मा तक छू जाता था। जब पड़ोसी भी परिवार जैसा होता था। जब मोहल्ले के बुज़ुर्गों को देख कर सीधा रास्ता बदल लेते थे, क्योंकि दिल में सम्मान था — डर नहीं, आदर था।

वो शादियाँ याद हैं जब पंगत में बैठकर पूड़ी, सब्ज़ी, रायता और मिठाई खाने का मज़ा ही कुछ और था। उंगली के इशारे से दो लड्डू और काजू कतली मांगना, गरम पूड़ी छांट-छांट कर लेना, और पानी वाले को ढूंढना एक रस्म सा लगता था।

हमारे अनुभव, हमारे सबक

हमने गुज़ारा है वो बचपन जब कूलर, एसी, स्मार्टफोन, इंटरनेट नहीं थे। फिर भी गर्मी से लड़ लिए, खुश भी रहे। हमने रिश्तों की मिठास, परिवार की गर्माहट, और मोहल्ले की एकता देखी है। आज की पीढ़ी जितना ज्ञान ले रही है, उतनी संवेदनशीलता, सहानुभूति और जीवन के वास्तविक रंग उनसे छूटते जा रहे हैं।

एक ऐसा समय भी देखा…

हम वो लोग भी हैं, जिन्होंने कोरोना जैसे दौर को जिया — जब अपनों को छूने से भी डर लगने लगा, जब अर्थियां बिना कंधों के श्मशान पहुंचीं, और आदमी खुद अपनी सांसों से डर गया।

हम वो लोग हैं…

जो अब भी अपने माता-पिता की बात मानते हैं और अपने बच्चों की भी। हमने पुरानी पीढ़ियों का सम्मान भी किया और नयी पीढ़ियों की सोच भी अपनायी। हम एक सेतु हैं — उस दुनिया और इस दुनिया के बीच।

निष्कर्ष:

हमारी पीढ़ी आख़िरी वो खुशनसीब पीढ़ी है जिसने हर रंग, हर बदलाव को जिया है। एक पैर परंपरा में और एक तकनीक में रखा है। हमने रिश्तों को निभाया भी है और टेलीविजन पर “रिश्ता खोजो” भी देखा है।

अब जबकि समय तेजी से बदल रहा है, हम बस यही चाहते हैं — अगली पीढ़ी कभी-कभी ठहर कर, हमारी इन स्मृतियों को समझे, महसूस करे… क्योंकि इन्हीं में वो मिठास है, जो शायद फिर कभी न दोहराई जा सके।

स्वस्थ रहिए, मस्त रहिए — और यादों को जिंदा रखिए।

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“हम वो आख़िरी खुशनसीब लोग हैं…” “बीते हुए कल की चुप यादें” “1960 से 2025: एक यात्रा, जो दो युगों को जोड़ती है”

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